Sunday 21 May 2017

दियाला चाहता है तीरगी को.....

मिटा दूँगी ग़ज़ल कहकर खुदी को |
बता देना मेरी अगली सदी को |

समन्दर तिश्नगी से मात खाकर।
पुकारा करता है भीगी नदी को।

सही कहते हो वाइज़ा नहीं दिल।
जरूरत है बुतों की बंदगी को ।

महज़ टुकड़ा बचा पाता है लेकिन।
दियाला चाहता है तीरगी को।

कहीं रोटी कहीं कपड़े कहीं छत।
कहाँ मिलता है सबकुछ ही किसी को।

विसाले यार जिस्मो रू की हसरत।
करूँ मैं क्या मेरी आवारगी को।

उठा लाओ न अपनी शब की खातिर ।
बिठाओ रू ब रू फिर चाँदनी को |


Thursday 23 March 2017

ग़ज़ल......और हम ऐसे के सच्चा नहीं हुआ जाता |

हाय कैसे ये कहें क्या नहीं हुआ जाता |
कुछ भी हो जाएँगे तुझसा नहीं हुआ जाता |

लोग तो जाने कैसे झूठ नहीं हो पाते |
और हम ऐसे के सच्चा नहीं हुआ जाता |

संगतराश आप हैं पत्थर हैं हम भी लेकिन हम |
एक कंकर से हैं बुत सा नहीं हुआ जाता |

क्या मुसीबत है कि सब हासिल-ओ-हासिल है मगर |
एक बस तुमसे ही मेरा नहीं हुआ जाता |

दिल अगर चाहता है तुमको तो मिल जाओ इसे |
साथ बच्चों के क्या बच्चा नहीं हुआ जाता |

Thursday 16 March 2017

बिछोह का रंग



वो जो मेरे मुस्कुराने से
तुम्हारे दिल की बढ़ती एक एक धड़कन ने जो लिखी थीं
देखना वो प्रेम कविताऐं
मिल जाऐंगी लाइब्रेरी की सबसे ऊपर की रैक में
समाजशास्त्र की किताबों में दबी
पुरानी ही खुश्बू के साथ पुरानेपन के ज़र्द रंगों की पैरहन में लिपटी


शायद वहीं खूंटी पर टंगें हो सब अधूरे किस्से भी
जिस पर टांगा था मैंने तुम्हारा पीला कुर्ता
और शायद इन किस्सों की ज़र्दी उसी कुर्ते का उतरा रंग हो
जिस पर से उतर गया मेरे स्पर्श का गुलाबीपन

और मेरे ख़त मिलेंगे तुम्हें
खिड़की के पास रखी तुम्हारी स्टडी टेबल पर
किसी अभया या किसी सुधा की बंद हथेलियों
या शायद उसी पहली डायरी में
हमारे संयुक्त हस्ताक्षर वाले पन्ने के पास
जहां रखी थीं हमने सारी मुलाकातें सहेजकर
हाँ लेकिन स्पष्ट नहीं होंगे अक्षर
पीले हो गए होंगे
मरने लगे होंगे खुद को महज़ कागज़ मानकर
फिर महीनों से देखे भी तो नहीं तुमने

जूड़े में तुमने टांका था जो आधी रात का पूरा चाँद
कभी न सुलझने की चाह में अंगुलियों की अंगूठियां
पैरों की हलचल से चली हवा में लहराती
झीलों की सितारे टंकी काली ओढ़नी
ये सब कुछ रक्खा था मैंने
सिंगार पेटी में रखकर बिलकुल कोने में खड़ी
लकड़ी की उस पुरानी अलमारी में
देखना अब तो धूल जम गई होगी उस पर
मैं नहीं बुहारती न अब धूल मिट्टी
फिर तुम तो बुहारोगे भी क्यूं
और भी तो काम हैं तुम्हें

अरे हाँ वो तुलसी का पौधा
मुरझा गया होगा अब
धूप के पीलेपन से झड़ने लगे होंगे पत्ते
वैसे ही जैसे तुमसे दूर
मेरा भी चेहरा पीला पड़ गया है

तुमने ये तो बताया था कि
प्रेम का रंग गुलाबी होता है
मेरी हथेलियों सा
लेकिन ये क्यों नहीं बताया
बिछोह का भी रंग होता है
पतझर जैसा........


......संयुक्ता

Thursday 9 February 2017

ऐसे तुम बहुत बुरे



एक मुलाकात
थोड़ी सी बात
बस कुछ हालचाल
कहना सुनना पूछना बताना
सुबह शाम का आना जाना
भोर के गीत चंद्रमा से सुनकर
जैसे के तैसे तुम्हें सुनाना
बगिया में कितने फूल खिले
कितने बीजों में अंकुर फूटे
गिन गिन कर सब तुम्हें बताना
ऐसी मैं
सदा फिक्रमंद
और
बुलाने पर भी न आना
बिना बताए चले जाना
नख से शिख तक
बिखरे उलझे अव्यवस्थित
बेपरवाह बेतरतीब अनजान
ऐसे तुम
बहुत बुरे

.........संयुक्ता

कोशिश तो की थी तुमने




कोशिश तो की थी तुमने बहुत
कि बाँध सको मुझको तुम
नख से शिख तक इक बंधन में
कष्ट दिए हैं कितने कितने
छेद दिया अंग अंग मेरा रीति रिवाजों के नाम पर
नथनी और बाली कहकर
डाल दी बेड़ियाँ भी श्रृंगार के नाम पर
हार कंगन पायल कहकर
ढांक दिया नख से शिख तक परंपरा और मर्यादा के नाम पर
गूंगापन और घूंघट कहकर
लेकिन सुनो
मैं औरत हूँ
उतना ही बंधूंगी जितना चाहूंगी
धरती हूँ
हथेली पे रखती हूँ तुम्हारी दुनिया
इसे उजाड़ना पल भर का खेल है  
उतना ही सहूँगी जितना चाहूंगी
यदि तुम बांधना ही चाहते हो मुझे
तो देती हूँ एक सूत्र मुझे बांधे रखने का
आत्मा को बांधो आत्मा से  
और आत्मा बंधती है केवल और केवल
प्रेम से सम्मान से
इसके इतर
तो तुम्हारी क्षमता नहीं
मुझे समेटने वश में करने की |

.................संयुक्ता

Sunday 5 February 2017

अब जब हम मिलते हैं



किलोमीटर की धुंध में
ओझल हो गए मन से
कुछ अधिकार हमारे
खो गयी सफ़र में
चिंताएं,फिक्रें, ख़याल सब
मिलते तो हैं मंजिलों पर
लेकिन अब साँझा नहीं
मंजिलें अपनी अपनी हो गयीं
अब जब हम मिलते हैं
पूछ लेते हैं हाल चाल
घर-बार के
रिश्ते परिवार के
लेकिन अब
कहाँ पूछते हो तुम
और कहाँ कहती हूँ मैं
हाल मेरे मन के
अब जब हम मिलते हैं
प्यार नहीं
औपचारिकताएं निभाते हैं.......

Friday 6 January 2017

ऑनलाइन प्यार बुरा थोड़े ही होता है.....



वो जो भीड़ भाड़ में
कतराती रहती हैं
बोलती हुई आँखों को सुनने से
सुनने वाली आँखें
तुम मानो न मानो
इन दोनों खामोशियों के होंठ
बतियाते हैं बहुत
आधी आधी रात तक
कैसे ???? ओफ्फो..............
मैंने कहा नहीं था क्या
ऑनलाइन प्यार
कोई बुरा थोड़े ही होता है
है न.......

.....संयुक्ता